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ऊतक परीक्षा

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मस्तिष्क की बायॉप्सी

ऊतक परीक्षा (अंग्रेज़ी: बाइऑप्सी) निदान के लिए जीवित प्राणियों के शरीर से ऊतक (टिशू) को अलग कर जो परीक्षण किया जाता है उसे कहते हैं। अर्बुद (ट्यूमर) के निदान की अन्य विधियाँ उपलब्ध न होने पर, संभावित ऊतक के अपेक्षाकृत एक बड़े टुकड़े का सूक्ष्म अध्ययन ही निदान की सर्वोत्तम रीति है। शल्य चिकित्सा में इसकी महत्ता अधिक है, क्योंकि इसके द्वारा ही निदान निश्चित होता है तथा शल्य चिकित्सक को आँख बंदकर करने के बदले उचित उपचार करने का मार्ग मिल जाता है।[1]

यकृत कोर नीडल बायॉप्सी

ऊतक-परीक्षा-विधि रोग के प्रकार और शरीर में उसकी स्थिति पर निर्भर रहती है। जब अर्बुद सतह पर स्थित रहता है तब यह परीक्षा अर्बुद को काटकर की जाती है। किंतु जब वह गहराई में स्थित रहता है तब ऊतक का एक छोटा टुकड़ा पोली सूई (इंजेक्शन) द्वारा चूसकर अलग किया जा सकता है। यह "सुई-उतक-परीक्षण" (नीडिल-बाइऑप्सी) कहलाता है। ऊतक के इस तरह अलग करने के बाद रोगविज्ञानी (पैथालोजिस्ट) उसे हिम के समान जमाकर और उसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनुप्रस्थ काट लेकर, कुछ मिनटों में ही निदान कर लेता है। स्तवग्रंथि अर्बुद जैसे रोगों में, निदान की तुरंत आवश्यकता होने के कारण, यही विधि उपयोग में लाई जाती है, अन्यथा साधारणत: ऊतक का स्थिरीकरण करके और उसे सुखाकर मोम में जमा दिया जाता है। इसके बाद उससे एक इष्टिका (ब्लाक) काट ली जाती है। इस इष्टिका के सूक्ष्म अनुप्रस्थ काट (सेक्शन) लेकर, उन्हें उपयुक्त रंगों से रंजित किया जाता है। इस विधि में साधारणत: एक से लेकर तीन दिन तक लगते हैं।[1]

शल्य चिकित्सक स्तन की बायॉप्सी करते हुए

आजकल कई चिकित्डॉसक गुहांतदर्शन की सहायता से भी ऊतक-परीक्षा कर रहे हैं। गुहांतदर्शन भी संचालन का एक तरीका है, जिसमें शरीर के अंदर कैमरा डाला जाता है और कैमरे की सहायता से चिकित्डॉसक रोगी भाग तक पहुंच कर निरीक्षण करता है। उसके बाद उस अंग की ऊतक-परीक्षा होती है। ऊतक-परीक्षा के लिए चिकित्सक शल्य चिकित्सा विधि भी अपनाते हैं, जिससे शरीर के ग्रस्त भाग का छोटा सा अंश काट कर प्रशिक्षण को भेजा जाता है। शल्य विधि वाली ऊतक-परीक्षा से गंभीर बीमारियों के इलाज में काफी मदद मिलती है। इस विधि से कैंसर के इलाज में भी मदद मिलती है। इससे शरीर के कैंसर ग्रस्त अंग से संदिग्ध उभार या धब्बे आदि दूर किए जाते हैं। यह रोग को फैलने से रोकता है। रोगविज्ञानी नमूने के निरीक्षण में रोग फैलने की क्षमता पहचानता है। इसमें सूक्ष्मदर्शी से अन्य लक्षणों की भी जांच होती है। इन निरीक्षणों की पुन: जांच होती है जिसके बाद परिणाम चिकिसक को भेजे जाते हैं। रोग विस्तार क्षमता की पहचान ‘नकारात्मक’ और ‘सकारात्मक हाशिया’ से होती है। सकारात्मक परिणाम में कोशिका नमूने की आवश्यकता पड़ती है पर नकारात्मक में ऐसी आवश्यकता नहीं होती।[1]

कुछ चिकित्सक ऊतक परीक्षण के विपक्ष में हैं, क्योंकि उनकी यह आशंका है कि ग्रंथियों के काटने से रोग शिराओं तथा लसीका तंत्रों द्वारा फैल जाता है, किंतु यह सिद्ध हो चुका है कि ऊतक परीक्षा द्वारा रोग बढ़ने की संभावना प्राय: नहीं रहती।

सन्दर्भ

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  1. ऊतक-परीक्षा। हिन्दुस्तान लाइव। १० अगस्त २०१०

बाहरी कड़ियाँ

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